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जयपुर। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस बार कला और सिनेमा की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े हो गए। ‘मेमोरीज फ्रॉम द स्क्रीन एंड स्टेज’ सेशन के दौरान थिएटर अभिनेता-निर्देशक एमके रैना और अभिनेत्री-गायिका इला अरुण के बीच कश्मीर को लेकर बहस छिड़ गई। एमके रैना, जो थिएटर और सिनेमा के जरिए सामाजिक सच्चाइयों को उभारने के लिए जाने जाते हैं, फिल्मों में कश्मीर की छवि को तोड़-मरोड़ कर पेश किए जाने से इतने व्यथित हुए कि उन्होंने मंच ही छोड़ दिया। वहीं, इला अरुण ने उनके गुस्से को अनुचित ठहराते हुए कहा कि उन्हें अपनी असहमति ज़ाहिर करने का कोई और तरीका अपनाना चाहिए था।
सिनेमा में कश्मीर की छवि: पक्ष और विपक्ष
एमके रैना की नाराजगी कश्मीर की वास्तविकता को तोड़-मरोड़ कर पेश करने को लेकर थी। उन्होंने यह चिंता जताई कि कई फिल्मों में कश्मीर की जटिल राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों को सरलीकृत और पूर्वाग्रह से ग्रसित तरीके से दिखाया जाता है। उनका यह आरोप कोई नया नहीं है, बल्कि लंबे समय से कला और राजनीति के गलियारों में यह बहस चल रही है कि क्या मुख्यधारा की फिल्में और वेब सीरीज़ कश्मीर के मुद्दे को संतुलित रूप से प्रस्तुत कर रही हैं या फिर महज एक नैरेटिव को स्थापित करने का जरिया बन रही हैं?
इसके विपरीत, इला अरुण का मानना था कि कला को केवल एक कोण से देखना उचित नहीं। उन्होंने अपने नाटक के अनुभव साझा करते हुए यह संदेश देने की कोशिश की कि संवाद और कला को एक खुले मंच पर बहस और समझ के साथ देखना चाहिए, न कि भावनाओं के आवेग में आकर मंच छोड़ देना चाहिए।
क्या सिनेमा कश्मीर की सही तस्वीर दिखा रहा है?
सिनेमा हमेशा से समाज का आईना माना गया है, लेकिन जब राजनीतिक मुद्दों की बात आती है, तो वह एक शक्तिशाली माध्यम बन जाता है। बीते वर्षों में ‘हैदर’, ‘द कश्मीर फाइल्स’ और ‘शिकारा’ जैसी फिल्मों ने कश्मीर को अलग-अलग नजरियों से पेश किया है। कुछ आलोचक मानते हैं कि ये फिल्में या तो सरकार के नैरेटिव को सपोर्ट कर रही हैं या फिर किसी एक पीड़ित वर्ग के नजरिए से पूरी कहानी कह रही हैं।
एमके रैना की चिंता इसी पूर्वाग्रह को लेकर है। उनकी नज़र में कश्मीर का सच बेहद जटिल है, जिसे महज दो-ढाई घंटे की फिल्मों में समेटना आसान नहीं। इसके उलट, कई लोग यह तर्क देते हैं कि अगर फिल्मों में कश्मीर की सच्चाई का कोई पहलू दिखाया जाता है, तो उसे खारिज करना भी उचित नहीं।
संवाद की जरूरत, टकराव नहीं
इस पूरे विवाद में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या असहमति को संवाद के जरिए सुलझाया जा सकता था? कला और साहित्य के मंचों पर ऐसे मुद्दों पर खुलकर बात करना जरूरी है, लेकिन मंच छोड़ देना या किसी की भावनाओं को अस्वीकार करना समाधान नहीं हो सकता।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे मंचों पर इस तरह की बहसों का होना यह दिखाता है कि सिनेमा और थिएटर आज भी विचारधारा और समाज पर गहरा असर डालते हैं। लेकिन यह भी जरूरी है कि कला को एक खुले विचार मंच की तरह देखा जाए, जहां हर पक्ष की बात सुनी जाए और उसका विश्लेषण किया जाए। कश्मीर एक ऐसा विषय है, जिस पर आने वाले समय में और भी गंभीर चर्चा की जरूरत है—लेकिन वह चर्चा तभी सार्थक होगी जब वह टकराव की जगह संवाद की दिशा में बढ़ेगी।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आज आखिरी दिन . . .
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