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वक्फ शब्द अरबी भाषा से आया है, इसका अर्थ किसी मुसलमान द्वारा अपनी संपत्ति को धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए समर्पित करना है। वक्फ की गई संपत्ति पर किसी का अधिकार नहीं रह जाता, जिस व्यक्ति ने अपनी संपत्ति वक्फ की है उसके उत्तराधिकारियों को भी। कहा जाता है कि भारत में मुहम्मद गौरी के समय सबसे पहले संपत्ति के वक्फ करने की शुरूआत हुई थी, जब उसने मुल्तान की जामा मस्जिद के लिए एक गांव को वक्फ कर दिया था। इसके बाद अंग्रेजों ने 1923 में इस बारे में एक कानून बनाने की कोशिश की थी। लेकिन, 1954 में भारत में पहला वक्फ अधिनियम संसद से पारित किया गया। हांलाकि उसकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि धर्म के आधार पर भारत का विभाजन किया जाकर मुस्लिमों के लिए अलग से पाकिस्तान दे दिया गया था। फिर साल 1995 में नरसिंहराव सरकार ने वक्फ अधिनियम को संशोधित कर और अधिक ताकतवर बना दिया।
इस कानून से मिली शक्तियों का देशभर के 32 वक्फ बोर्डों ने जमकर दुरूपयोग किया। वक्फ बोर्ड द्वारा जमीनों पर अतिक्रमण बढ़ने की शिकायतें आने लगीं और वक्फ बोर्ड जमीनों के पटटे जारी कर उन्हें बेचने लगा, यह बात अलग है कि वक्फ की गई संपत्ति को बेचा नहीं जा सकता। फिर साल 2013 में मनमोहन सिंह सरकार ने एक बार फिर वक्फ अधिनियम में संशोधन किया जिसमें वक्फ बोर्ड़ों को दान के नाम पर संपत्तियों पर दावा करने के असीमित अधिकार मिल गए और हद तो तब हो गई जब वक्फ बोर्ड द्वारा दावा की गई संपत्ति के मालिकाना हक के विरोध में कोई सुनवाई तक नहीं हो सकती।
आज वक्फ बोर्ड के पास सेना और रेल्वे के बाद सबसे ज्यादा संपत्ति है। वक्फ बोर्ड देशभर में 9.4 लाख एकड़ में फैली 8.7 लाख संपत्तियों को नियंत्रित करता है, जिसकी अनुमानित कीमत 1.2 लाख करोड़ रूपए है। प्रश्न यह है कि क्या भारत में ऐसे किसी बोर्ड या निकाय की आवश्यकता है, जो धार्मिक आधार पर दूसरे मतावलंबियों यहां तक कि सरकार की संपत्तियों पर भी अपना अधिकार जताए और उसके इस दावे के खिलाफ कोई सुनवाई तक ना हो।
वक्फ बोर्ड सिर्फ मुस्लिम संपत्तियों को ही वक्फ करे और मुसलमानों के लिए ही हो तो बात तार्किक हो सकती है। लेकिन, पिछले दिनों एक मामला प्रकाश में आया जब तमिलनाडू में कावेरी नदी पर स्थित तिरूचिरापल्ली जिले के तिरुचेंथाराई गांव पर वक्फ बोर्ड ने अपना दावा जता दिया। रोचक तथ्य यह है कि इस गांव में 1500 वर्ष पुराना सुंदेश्वर मंदिर भी है। समझने की बात यह है कि वक्फ बोर्ड एक और घाव है जिसे कांग्रेस के नेताओं ने भारत के बहुसंख्यक समाज को दिया है।
पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिमों की संपत्तियों पर मुस्लिम समाज का ही अधिकार रहे, इसलिए वक्फ बोर्ड बनाया गया। हालांकि पाकिस्तान से जो हिन्दू शरणार्थी भारत आए उनकी संपत्ति के रखरखाव के लिए पाकिस्तान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हुई। दूसरी ओर कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों पर चलते हुए साल 2014 में चुनाव की आचार संहिता लागू होने से एक दिन पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिल्ली की 123 बहुमूल्य संपत्तियों को वक्फ बोर्ड को दे दिया। जिसे मोदी सरकार ने 5 साल की लम्बी कानूनी प्रक्रिया के बाद वापस ले लिया।
अब जब वक्फ बोर्ड संपत्ति जेहाद पर उतर आया है, मोदी सरकार ने इस अधिनियम को और अधिक तार्किक और पारदर्शी बनाने के लिए संशोधन प्रस्तुत किया है, जिसे संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया है। यह समिति देश भर से प्राप्त अनुशंसाओं के आधार पर सदन में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। देशभर के मुस्लिम संगठन इस मुद्दे को लेकर मुसलमानों के पास जाकर कह रहे हैं कि यदि ये संशोधन हो गया तो उनकी धार्मिक आजादी छिन जाएगी, उनके कब्रिस्तान और मस्जिदें चली जाएंगी।
आश्चर्यजनक बात यह है कि ये मुस्लिम जमात और संगठन वक्फ बोर्ड के उन फैसलों के खिलाफ अपनी आवाज नहीं उठाते जिनके चलते वे किसी भी व्यक्तिगत संपत्ति, गांव, सरकारी संपत्ति यहां तक कि न्यायिक परिसर को भी वक्फ मान लेते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का मामला तो अभी ताजा ही है।
तो जरूरत इस बात की है कि वक्फ अधिनियम में संशोधन की बजाय इस कानून को ही समाप्त किया जाए, क्योंकि ऐसी किसी संस्था की आवश्यकता भारत में नहीं जो भारत सरकार की संप्रभुता को ही चुनौती देती हो और उसी के समान ही शक्ति संपन्न हो। इसी के साथ आजादी के बाद से गैर मुस्लिमों की वक्फ की गई संपत्तियों को भी वापस करने का प्रावधान भी किए जाने की आवश्यकता है।
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